आलेख

“धीरे-धीरे हरवा चलइहे हरवहवा, गिरहत मिलले..!”
अदरा चढ़े दो दिन हो गया था। देर रात से ही तेज बारिश हो रही थी। तीन बजे भोर में
गांव-ज्वार

कॉलेजिया लईकी ढूंढने वाले बाबूजी के बेरहम दुख!!!
चनेसर काका का बड़का बेटा जब बीटेक कर गया तो अगुआ दुआर की माटी कोड़ने लगे। और लड़की थी कि
समीक्षा
‘नीचे इश्क है उपर रब है, इन दोनों के बीच में सब है’
मित्रो, अंग्रेजी कैलेंडर के मुताबिक साल का पहला दिन था। आज पांच बजे ही नींद टूट गई। आदत के मुताबिक
ज़िंदगी लाइव

प्लीज, शहरी जिंदगी में गंवारपन को मरने मत दीजिए!
‘ए घरी के मेहरारू आवत बाड़ी स, मत पूछीं। सभके उहे हाल बा, ले लुगरी आ चल डुमरी’, रमेसर काका

डियर सुशांत, सहानुभूति तुमसे नहीं, बिहारी कलाकारों की बदक़िस्मती से है
प्रिय सुशांत, नमस्ते अलविदा! मुझे पता है, यह चिट्ठी तुम तक नहीं पहुंच पाएगी। फिर भी लिख रहा हूं, बिना

गाते, बजाते या संगीत सृजन करते समय, आप दुनिया का सबसे खूबसूरत इंसान होते हैं!
चुरा लिया है तुमने जो दिल को..! दम मारो दम मिट जाए गम फिर बोलो सुबह शाम…! नीले नीले अंबर

वो जेठ की तपती दुपहरी, नहर में डुबकी लगाना और गाछी का आम तोड़कर खाना!
जंगल जंगल बात चली है पता चला है, चड्डी पहन के फूल खिला है..! वर्ष 1990 का दशक, यानी एक