इंटरनेट ने लगाया ‘छपास रोग’ पर मरहम
इस छपने-छपवाने के चक्कर में जाने कितनी अबलाओं का चारित्रिक पतन हुआ होगा. कितने संपादक देवदास बन किसी पारो के फेरे में बदनाम हुए होंगे. और समझौता नहीं कर पाने के कारण कितनी नवोदिताएं लेखिका बनते-बनते रह गई होंगी. पुरूषों कि तो बात ही न पूछिए जनाब. एक दौर वह भी था जब किसी पुरूष का नामी अखबार या पत्रिका में छपने के लिए कम-से-कम संपादक का करीबी या प्रशासनिक अधिकारी होना अनिवार्य शर्त होती थी. जो लोग महज एक दशक पहले से इस क्षेत्र में हैं. इस तरह के खट्टे-मीट्ठे तमाम अनुभव से जरूर रू-ब-रू हुए होंगे. वो तो लाख-लाख शुक्र है सोशल साइट्स व इंटरनेट का, जिसके आने के बाद लेखकों व कवियों के सपनों को नई उड़ान मिली है.
अब किसी को भी अपना लिखा छपवाने के लिए किसी प्रतिष्ठित संपादक कि सहमति जरूरी नहीं रही. यह मिथक भी टूटा कि प्रतिभा दबाई जा सकती है. इसीलिए आज हर कोई लेखक है, पत्रकार है व कवि भी. खुद के ब्लॉग पर लिखिए, फेसबुक पर लिखिए या दूसरे के वेब पोर्टल पर. आपके कंटेंट में दम है तो कुछ ही घंटे में आपका लिखा सैकड़ों जगह छपा मिल जाएगा. तारीफ़ या आलोचना भी हाथोंहाथ मिल जाती है. दीगर कि बात यह है कि अखबार व पत्रिकाएं यहीं से रचना चुराने, यूं कहिए कि साभार लेकर छापने को मुहताज हैं.