यादें (3): वो जमाना जब दूध सस्ता और मनोरंजन महंगा था!
हां, इतना जरूर था कि कंप्यूटर व संचार क्रांति के आ जाने से गांवों में भी इक्के-दुक्के कुलीन घरों में टेलीफ़ोन की पैठ हो चुकी थी. यहां 18 इंच वाला सनमाईका का ‘श्वेत-श्याम टेलीविजन’ व ‘यूएचएफ’ एंटीना जिसके पास होता, वह आला दर्जे का समझा जाता. जो कि बिजली नहीं रहने पर बैट्री से भी चलता था.मेरे गांव में वर्ष 84 में ही बिजली आ गई थी. पर सनमाईका ब्रांड टीवी बाद के दिनों में घर में आया. मैं जब इसे देखने-समझने लायक हुआ तब ‘काका जी कहिन’, डॉ. राही मासूम राजा के उपन्यास पर आधारित ‘नीम का पेड़’, ‘द सोर्ड ऑफ़ टीपू सुल्तान’, ‘तलाश’, ‘व्योमकेश बक्षी’ जैसे धारावाहिक सबकी जुबान पर थे.
उन्हीं दिनों नेपाल के दूरदर्शन ने ‘रामायण’ का प्रसारण शुरू किया. चूंकि मेरा गांव नेपाल की सीमा से नजदीक है. सो यहां का एंटीना भी इस चैनल को साफ़-साफ़ पकड़ता. दिन में राष्ट्रीय चैनल की तस्वीर की गुणवता काफी घटिया रहती. लेकिन नेपाली चैनल की गुणवता उम्दा होने बावजूद इस पर हिंदी का एक मात्र यहीं कार्यक्रम आता. ‘रामायण’ देखने के लिए एंटीना को उतर दिशा में यानी नेपाल की तरफ घुमाना पड़ता. हर सप्ताह सोमवार की शाम 7 बजे नेपाल से ‘महाभारत’ का प्रसारण होता. बिजली गुल होने पर कार्यक्रम बाधित ना हो, इसके लिए बाजार से बैट्री चार्ज करा लाकर रखी जाती. लोगों की संख्या बढ़ने से कमरा छोटा पड़ने लगा तो टीवी ओसारे पर रखा जाने लगा.
इस कालजयी धारावाहिक की महिमा कुछ ऐसी फैली कि इसे देखने के लिए करीब 5 किलोमीटर दूर के गांव से भी लोग मेरे दरवाजे पर आने लगे. इस कारण टीवी दरवाजे से बाहर दुआरे पर आ गया. एक बड़ा सा तिड़पाल बिछाया जाता और पूरा दुआर दर्शकों से भर जाता. महिलाओं को आगे की पंक्ति में बिठाया जाता. इस दौरान श्रद्धा व भक्ति के आगोश में लोगों की अलौकिक एकता देखते ही बनती. वे नत-मस्तक होकर टीवी देखने में लीन हो जाते. धारावाहिक में पात्रों का इतना सजीव चित्रण था कि दोनों हाथ जोड़े कुछ महिलाएं, कभी-कभी भावुक दृश्यों को देख भाव-विह्वल हो आंखों से आंसू भी टपकाने लगतीं.
दादी पुराने ख्यालात की महिला थीं, सो लड़कियों से ज्यादा लड़कों के प्रति अनुराग रखतीं. वह अक्सर कहां करतीं- ‘गाय के बछड़े व घर के बेटों को दूध पिलाना कभी भी नागा नहीं गुजरता.’ दरअसल इसके पीछे दादी की पारंपरिक सोच थी कि उक्त दोनों ही जीव कमाने वाले होते हैं, जिससे कि गृहस्थी चलती है. दादा ने चारा काटने, भैंसों को खिलाने व अन्य घरेलू कामों के लिए एक नौकर भी रखा था. लेकिन वे नौकर की बजाय खुद पर ज्यादा भरोसा करते थे. कभी-कभार अपने हाथों से ‘लेडीकट्टा मशीन’ से चारा काटने लगते और मैं डोंगे में पुआल व घास लगाता. मैं भी आंशिक रूप से मशीन चलाने में दादा का हाथ बंटा देता. मशीन क्या था बोले तो एक तरह से देहाती जिमखाना, जिस चलाते हुए शरीर का व्यायाम भी हो जाता.
एक आम देहाती बच्चे की तरह मुझे भी दादा से बेहद लगाव था. दूसरे, मैं चाहे लाख गलतियां कर लूं दादा अक्सर मेरी तरफदारी करने से बाज नहीं आते थे. मैं जैसे ही घर से भाग सरेह में पहुंचता, दादा मुझे भैंस के पीठ पर बैठा देते. भैस जब चरते हुए उबड़-खाबड़ रस्ते से गुजरती तो उसकी मांसल पीठ पर बैठे हुए काफी गुदगुदी होती. उस सुखद अनुभव को कलम से बयां करना नामुमकिन है. लिहाजा भैस की सवारी का यहीं तो आनंद था, जिसका लोभ संवार पाना मेरे लिए कठिन काम था.
पर यह विडंबन ही है कि प्रकृति से किसी की ख़ुशी ज्यादा दिनों तक नहीं देखी जाती. कुछ ऐसा ही बुरा मेरे साथ भी हुआ. एक दिन भैंस पर सवार मैं अपनी धुन में मगन था कि उसे बगल की झाड़ियों में कुछ खुरखुराने की आवाज सुनाई दी. अब मुई भैस ने आंव न देखा ताव और उछलते हुए भागने लगी. इसी चक्कर में उसके पगहा से मेरा हाथ छूट गया. मैं नीचे और भैंस का अगला पैर मेरे बदन पर. वो तो गनीमत था कि उसका पिछला पैर मेरे सीने पर नहीं पड़ा, वरना परलोक सिधारने में कोई हर्ज नहीं था. मामूली चोट व खरोच आने के साथ सही-सलामत बच गया, यहीं सोच भगवान को लाख-लाख बधाईयां दी. फिर तो दोनों कान पकड़ इस मटरगश्ती से तौबा ही कर ली.
उनके दो बेटे थे पर वे दोनों से अलग रहते. पत्नी से बेहद प्यार था उनको और इसी प्यार का वास्ता देकर ओनिडा कंपनी का कलर टीवी घर लाए. पूरे गांव में यह खबर फ़ैल गई. क्योंकि उस समय रंगीन टीवी खरीदना सबके वश की बात नहीं थी. पूरे 20 हजार रूपए खर्च करने पड़ते थे. मैं भी हमउम्र बच्चों के साथ रविवार को उनके घर ‘रामायण’ देखने चला जाता. एक दिन जाने क्या बात हुई कि वे दर्शकों की भीड़ से बेहद खफ़ा हो गए. बड़बड़ाते हुए बोलने लगे- ‘टीवी मैंने अपनी बीवी के लिए ख़रीदा है ना कि गांववालों के लिए.’ फिर उन्होंने बाबा आदम के जमाने की कठैया बंदूक निकाली और ऐसे ही चला दिए. हालांकि गोली भरवी थी और एक कुत्तिया को जा लगी, बेचारी मौके पर ही बेमौत मारी गई. हम लोग तो वहां से ऐसे भागे कि घर आकर ही रुके.
वर्ष 92 में डिश एंटीना की पहुंच से केबल चैनलों ने भी अंगड़ाई लेनी शुरू कर दी. वीसीपी, वीसीआर, फ्रीज, वाशिंग मशीन आदि का वजूद महज शहरों तक ही सीमित था. गांव में लोग इन्हें विलासिता की चीजे समझा जाता. तब दूरदर्शन पर हर शनिवार व रविवार को फिल्में आती थीं, इसलिए हम लोगों को बेसब्री से इस दिन का इंतजार रहता. शादी-ब्याह या अन्य शुभ आयोजनों में मनोरंजन के तौर पर नई फिल्में देखने के लिए वीसीपी व रंगीन टीवी भाड़े पर लाया जाता. जारी…
दूध पझाने को रखना… नेपाल दूरदर्शन के लिए एंटीना का मूंह उत्तर की ओर घुमा देना…
हमेशा की तरह लाजवाब !